
अक्सर यूं ही चलते हुए,
ऊंची ऊंची दुकानों के, 
भीड़ भरे रास्तों से गुज़रते हुए,
बस यूं ही मैं सोचा करता हूँ |
उन दुकानों के शीशों से झांकते हुए,
कभी डराते, कभी मुस्कुराते हुए,
चमकीले लिबासों में लिपटे,
 ये पुतले; मुझ पर हंसा करते हैं,
और मैं, बस यूं ही इन्हें ताका करता हूँ |
क्या यही हमारी ज़िन्दगानी है ?
जो बस चंद लिबासों की ज़ुबानी है ?
हर वक़्त, हर अवसर, हर जज़्बात, 
हर जगह, हर महफ़िल के लिए; है इक लिबास |
हर तमन्ना के लिए इक लिबास,
हर तहज़ीब का है इक लिबास, 
उस दुकान पर पाओगे अमीरी का लिबास, 
नुक्कड़ पर मिलेगा गरीबी का लिबास |
हंसी का लिबास, खुशी का लिबास,
बेईमानी का लिबास, ईमानदारी का लिबास, 
जैसी भी हो ज़रूरत, 
है तुम्हारे पास इक लिबास |
पर इन लिबासों की भीड़ में, 
लुभावनी और आकर्षक, 
इस दिखावटी दुनिया की नींव में, 
खो गया है वह,
जिसे ढूंढना है हमें,
सभी पहना करते थे जिसे, 
चाहते थे, और दिलों में बसाते थे जिसे, 
कहते हैं उसे इंसानियत का लिबास |
देखो ज़रा होगा यहीं, 
दूर किसी छोटे से कोने में, 
दबा हुआ, कुचला हुआ, 
करता हुआ हम से फ़रियाद |
ढूंढ निकालो आज उसे,
पहन लो ये इंसानियत का लिबास, 
इसके ऊपर फिर चाहे जिसे भी पहनो, 
निखर जाते हैं सभी लिबास |
              
          
          

0 comments: